Taj Mahal poem in hindi
ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मअ’नी
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता
ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से
साहिर लुधियानवी
है किनारे ये जमुना के इक शाहकार
देखना चाँदनी में तुम इस की बहार
याद-ए-मुम्ताज़ में ये बनाया गया
संग-ए-मरमर से इस को तराशा गया
शाहजहाँ ने बनाया बड़े शौक़ से
बरसों इस को सजाया बड़े शौक़ से
हाँ ये भारत के महल्लात का ताज है
सब के दिल पे इसी का सदा राज है – अमजद हुसैन हाफ़िज़ कर्नाटकी
अल्लाह मैं ये ताज महल देख रहा हूँ
या पहलू-ए-जमुना में कँवल देख रहा हूँ
ये शाम की ज़ुल्फ़ों में सिमटते हुए अनवार
फ़िरदौस-ए-नज़र ताज-महल के दर-ओ-दीवार
अफ़्लाक से या काहकशाँ टूट पड़ी है
या कोई हसीना है कि बे-पर्दा खड़ी है
Taj Mahal hindi poem
इस ख़ाक से फूटी है ज़ुलेख़ा की जवानी
या चाह से निकला है कोई यूसुफ़-ए-सानी
गुल-दस्ता-ए-रंगीं कफ़-ए-साहिल पे धरा है
बिल्लोर का साग़र है कि सहबा से भरा है
महशर बदायुनी
परवीन शाकिर
संग-ए-मरमर की ख़ुनुक बाँहों में
हुस्न-ए-ख़्वाबीदा के आगे मेरी आँखें शल हैं
गुंग सदियों के तनाज़ुर में कोई बोलता है
वक़्त जज़्बे के तराज़ू पे ज़र-ओ-सीम-ओ-जवाहिर की तड़प तौलता है
हर नए चाँद पे पत्थर वही सच कहते हैं
उसी लम्हे से दमक उठते में उन के चेहरे
जिस की लौ उम्र गए इक दिल-ए-शब-ज़ाद को महताब बना आई थी!
उसी महताब की इक नर्म किरन
साँचा-ए-संग में ढल पाई तो
इश्क़ रंग-ए-अबदिय्यत से सर-अफ़राज़ हुआ
taj mahal shayri
कैफ़ी आज़मी
ये धड़कता हुआ गुम्बद में दिल-ए-शाहजहाँ
ये दर-ओ-बाम पे हँसता हुआ मलिका का शबाब
जगमगाता है हर इक तह से मज़ाक़-ए-तफ़रीक़
और तारीख़ उढ़ाती है मोहब्बत की नक़ाब
चाँदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़सम
दूध की नहर में जिस तरह उबाल आ जाए
ऐसे सय्याह की नज़रों में खुपे क्या ये समाँ
जिस को फ़रहाद की क़िस्मत का ख़याल आ जाए
दोस्त मैं देख चुका ताज-महल
वापस चल
अज्ञेय / ताजमहल की छाया में
हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये
मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी
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