चुनावी मौसम में राजनीतिक पार्टियां जनता को लुभाने के लिए कई वादे करती हैं लेकिन सत्ता में आने पर वादे सिर्फ वादे रह जाते हैं. कस्मे थी ख़त्म हुईं. बातें हैं बातो का क्या के तर्ज़ पे नेता निकल लेते हैं. ।
शायरों ने वादों पर कलाम लिखे हैं जो राजनीतिक पार्टियों पर अक्सर सटीक बैठते हैं। आपके लिए पेश है कुछ ऐसे ही मजेदार चुनाव पर शायरी, इलेक्शन पर शायरी , चुनावी शायरी
खौफ बिखरा है दोनों सम्तो में…
खौफ बिखरा है दोनों सम्तो में,
तीसरी सम्त का दबाव है क्या।
डाॅ. राहत इंदौरी

जिन्दा रहे चाहे जान जाएँ,
वोट उसी को दो जो काम आएँ
तुमको जनता का सेवक बोलेगा
अपने लिए हजार रास्ते वो खेलेगा
जनता का पुजारी खुद को बतलायेगा
सरकारी पैसा मिलते ही वो गप कर जायेगा
सियासत की अपनी अलग एक जबान है
लिखा हो जहां इकरार, इनकार पढ़ा जाए
कई रुप में वो आएगा तुम्हारे सपनो को लब्ज़ो से सजायेगा
हर बार की तरह तुमको हिन्दू और उसको मुस्लमान बतलयेगा



सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार
बरसों हुए न तुम ने किया भूल कर भी याद
वादे की तरह हम भी फ़रामोश हो गए
जलील मानिकपुरी
कसम उस खुदा की तेरे शहर में ताज महल ले आऊंगा
तुम ध्यान से सुनना चुनाव से पहले वह तुमको यही बतलायेगा
..मैं ईसा की तरह सूली पर से यह नहीं कहता – पिता, उन्हें क्षमा कर। वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं। मैं कहता – पिता, इन्हें हरगिज क्षमा न करना। ये कमबख्त जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।” हरिशंकर परसाई
लोकतंत्र का भाग्य-विधाता।
होगा जागरूक मतदाता।
मत देना अपना अधिकार।
बदले में ना लो उपहार।
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
निदा फ़ाज़ली
तुम हर बार की तरह इस बात भी जनता जनार्दन कहलाओगे
याद रखना मिलना तुम्हे कुछ नहीं है फिर मुँह की खाओगे
आपके वोट से आऐगा बदलाव,
समाज सुधरेगा, कम होगा तनाव ।
लोकतंत्र का यह आधार,
वोट न कोई हो बेकार।
राजनीति का रंग भी बड़ा अजीब हैं,
वही दुश्मन है जो सबसे करीब होता हैं
घर-घर अलख जगाएँगे,
मतदाता जागरूक बनाएँगे ।
वोट डालने चलो रे साथी,
लोकतंत्र के बनो बाराती
पानी की तरह बहती है दौलत चुनाव में
यक-जेहती का तो नाम नहीं रख-रखाव में
साग़र ख़य्यामी



जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
अल्लामा इक़बाल
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ पता तो करो चुनाव है क्या,
डाॅ. राहत इंदौरी
आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ए’तिबार किया
गुलज़ार
ये एक प्रश्न है
आप की क़समों का और मुझ को यक़ीं
एक भी वादा कभी पूरा किया
शोख़ अमरोहवी
बताओ भला
क्यूँ पशेमाँ हो अगर वादा वफ़ा हो न सका
कहीं वादे भी निभाने के लिए होते हैं
इबरत मछलीशहरी
ऐ राजनेताओं
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें एतिबार होता
दाग़ देहलवी
लगातार टूटते वादों के लिए
तिरे वादों पे कहाँ तक मिरा दिल फ़रेब खाए
कोई ऐसा कर बहाना मिरी आस टूट जाए
फ़ना निज़ामी कानपुरी
चुनाव जीतने से पहले जनता का विश्वास
क़सम जब उस ने खाई हम ने एतबार कर लिया
ज़रा सी देर ज़िंदगी को ख़ुश-गवार कर लिया
महशर इनायती
चूंकि सभी पार्टियां एक सी नहीं होतीं
हर-चंद एतबार में धोके भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए
जाँ निसार अख़्तर
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं
तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं।
दुष्यंत_कुमार